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तीसवां बोल- १४७
जाये तो वह अप्रतिबन्ध है । जो मनुष्य आँख और कान का मूल्य समझता होगा वह उनका दुरुपयोग कदापि नही करेगा । शास्त्रकारो का कथन है कि इन्द्रियो को और मन को विपरित क र्यों से निवृत्त करके सत्कार्यों मे प्रवृत्त करना अप्रतिबन्ध है । जो पुरुष प्रतिबन्ध से निवृत्त होकर अप्रतिवन्ध दशा मे विचरता है, वह अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है |
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आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए अप्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है और अप्रतिबद्ध होने के लिए सग का त्याग करने की आवश्यकता है । सग दो प्रकार के हैं । एक सग तो आत्मा को अधोगति मे ले जाता है और दूसरा सग ऊर्ध्वगति मे पहुचाता है । यहा जिस सग के त्याग करने के लिए कहा है वह अधोगति मे ले जाने वाला है । प्रश्न हो सकता है कि अधोगति मे ले जाने वाला सग कौनसा है और ऊर्ध्वगति में ले जाने वाला कौन-सा है ? इस प्रश्न के उत्तर मे गीता मे कहा है.
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ध्यायतो विषयान् विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते । सगात्संजायते काम कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥ क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥
अर्थात् - जिस सग के कारण विषयवासना मे प्रवृत्ति होती है वह सग अधोगति की ओर ले जाता है । क्योकि विषयवासना मे किसी प्रकार की विघ्नबाधा उपस्थित होने पर क्रोध उत्पन्न होना स्वाभाविक है । राम महापुरुष थे, फिर भी रावण को उन पर त्रोध हुआ था, क्योकि सीता