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उनतीसवां बोल - ११६
है, और जिसका मन व्याकुल रहता है, वह सुखशय्या पर सोने वाला है - सुखी है ।
पहले के लोग ऐसे थे कि वे प्राण देना कबूल कर लेते थे परन्तु परतन्त्रता स्वीकार नही करते थे । किन्तु ससार परिवर्तनशील है, इस कारण अब वह क्रम बदल गया दिखाई देता है और ऐसा जान पड़ता है कि लोग परतन्त्रता मे ही आनन्द मान रहे हैं ।
तीसरी सुखशय्या वतलाते हुए भगवान् कहते हैंविषयो का ध्यान भी न करना । आनन्द के लिए विषयों का भोग करना तो दूर उनका विचार भी न करना तीसरे प्रकार की सुखशय्या है ।
चौथी सुखशय्या यह कि चाहे जैसी आपत्ति आ पडे तो भी आपत्ति के समय सहिष्णुतापूर्वक कष्ट सहन करना और प्रसन्नचित रहना । दुःख जब सिर पर आ पडे तो इस प्रकार विचारना - अगर मैं इन दुखो को प्रसन्नतापूर्वक सहन करूगा तो मुझे महान् निर्जरा का लाभ मिलेगा और जो दुखपूर्वक सहन करूगा तो कर्मबन्ध होगा । अनेक महात्मा तो कर्मों की उदीरणा करके दुखो को समभाव से सहन करते हैं, तो फिर आई हुई विपत्ति से मुझे क्यो घबराना चाहिए ? जो दुख आये हैं वे बिना किये तो आये नही । मैंने दुखो को जन्म दिया, तभी वे आये हैं । अब, जब दुख. माथे आ पडे है तो उन्हे समता के साथ और धैर्यपूर्वक सहना ही चाहिए । धैर्यपूर्वक दुख सहन करने वाला सुखशय्या पर सोने वाला है, ऐसा समझना चाहिए |
सुखसाता के पाठान्तर के विषय मे यहाँ विचार किया