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उनतीसवां बोल - १२३
तुम भी अपने पूर्वज श्रावको के चरण चिह्नों पर चलकर स्वावलम्बी बनने का प्रयत्न करो । स्वावलम्बन मे सुख है । परावलम्बन मे दुख है ।
ससार के सभी लोग सुखशय्या चाहते हैं किन्तु सुख के नाम पर दुखशय्या को अपना रहे है और दुःखशय्या के नाम पर सुखशय्या छोड रहे हैं । परन्तु भगवान् ने कहा है कि जो स्वाधीन है और जिसका मन निराकुल है, वही सुखशय्या पर सो सकता है । मन को निराकुल बना देने से व्यावहारिक लाभ भी होता है और प्राध्यात्मिक लाभ भी होता है । पराधीन मनुष्य दु खशय्या पर सोने वाला है । स्वाधीनता का मार्ग छोड देना और परतन्ता की बेडो मे जकड जाना, सुखशय्या त्याग करके दुखशय्या पर सोने के समान है ।
एक कहावत है ' अपनी नीद सेना और अपनी नीद जगना' इस कहावत का सार यही है कि कोई भी ऐसा काम न करना चाहिए कि जिसकी चिन्ता के मारे रात मे नीद तक न आये, परन्तु ऐसा सत्कार्य करना कि जिससे सुखपूर्वक निद्रा आवे । इसी प्रकार भगवान् ने साधुओ के लिए कहा है कि - हे साधुओ। तुम पेटपूर्ति के लिए साधु नही हुए हो, परन्तु आत्मोद्धार करने के लिए, स्व- पर कल्याण करने के लिए साधु हुए हो । अतएव दुःखशय्या का त्याग करके सुखशय्या पर सोने का प्रयत्न करो ।
सुखशय्या पर सोने के लिए तो कहा, परन्तु सुखशय्या पर सोने से जीव को क्या लाभ होता है ? ऐसा गौतम स्वामी ने भगवान् से प्रश्न । इस प्रश्न के उत्तर मे
पूछा