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उनतीसवां बोल-१३३
सहज ही समझी जा सकती है कि जब उसका त्याग भी सुरक्षित रहा और व्यापार आदि की मर्यादा भी बराबर कायम रही, तब बढी हुई सम्पत्ति का सिवाय दान के और क्या उपयोग हो सकता था ? जिम मनुष्य मे सच्ची अनुकम्पा होती है, वह दान भी गुप्त रूप से ही देता है और दान देकर अभिमान नही करता। वह अपने नाम की प्रसिद्धि भी मही च हता ।
तुम लोग गाय की सेवा करके दूध पीते हो या, बाजार से खरीदा हुआ पीते हो? तुम गाय की सेवा किये बिना ही दूध पीते हो, फिर भी अपने आपको अनुकम्पा वाला कहलवाते हो? क्या बिक्री का दूध पीने मे अनुकपा है ? शास्त्रकार इसे अनुकपा नही कहते । ऐसी दशा में भी आज किसके घर मे गायें है ? आज कौन मोल खरीद कर दूध नहीं पीता ? स्त्रियाँ तो कह देगी कि हम अपनी सेवा करे या गायो की सेवा करे ? हम अपना सिंगार सजे अथवा गायो का गोबर और पेशाब उठाए ? जहाँ ऐसी भावना है वहाँ अनुकम्पा का गुजारा कहा ? सुना है, गाँधीजी ने भारत की गायो की दुर्दशा देखकर गाय का दूध पीना ही छोड दिया है। तुम लोग गाय का दूध तो पीते हो, मगर गाय की सेवा नहीं करते, इसका कारण यही प्रतीत होता है कि तुममे अनुकम्पा का अभाव है।
कहने का आशय यह है कि विषयसुख की लालसा का त्याग करने से अनुकम्पा उत्पन्न होती है और अनुकम्पा से अनुद्धतता अर्थात् निरभिमानता पैदा होती है । जिसमे निरभिमानता प्रकट हो जाती है उसमे किसी प्रकार का