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उनतीसवां बोल-१३५
हमारा देह अलग है और आत्मा अलग है । गजसुकुमार मुनि के मस्तक पर आग रखी गई, स्कदक मुनि की चमड़ी उधेड ली गई और पाच सौ मुनि कोल्हू मे पेर दिये गये, फिर भी उन मुनीश्वरों को किसी प्रकार की चिन्ता न हुई। कारण यह है कि वे मुनिराज आत्मा और शरीर को भिन्नभिन्न मानते थे । इस प्रकार शोकरहित होने का कारण अनुकंपा है । अनुकपा होने के कारण ही मुनीश्वरो को देहान्त कष्ट पडने पर भी चिन्ता पैदा न हुई। उन्होने अपना शरीर पहले ही परमात्मा को समर्पित कर रखा था ।
सुख-साता के प्रश्नोत्तर मे भगवान् ने कार्य कारणभाव बतलाया है । भगवान् ने कहा है - विषयलालसा न होने से अनुत्सुकता (विषयो के प्रति अनासक्ति) उत्पन्न होती है, अनुत्सुकता से अनुकम्पा उत्पन्न होती है और अनुकम्पा मे जीव मे निरभिमानता आती है, निरभिमानता से जीव शोकरहित बनता है और शोक रहित होने से चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है ।।
- शास्त्र मे मोहनीय कर्म के दो भेद कहे गये हैदर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय 1 दर्शनमोहनीय तो वस्तु का सम्यक् स्वरूप समझने में बाधक होता है और चारित्रमोहनीय कर्म वस्तु का स्वरूप समझ लेने पर भी उस समझ के अनुसार आचरण करने मे बाधक बनता है । वस्तु का यथार्थ स्वरूप समझ लेने पर भी चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से तदनुसार आचरण नही किया जा सकता । चारित्रमोहनीय कर्म नष्ट होने पर ही चारित्र प्रकट होता है ।