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१३४- सम्यक्त्वपराक्रम (३)
शोक, सताप या किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती । जिसमे सच्ची अनुकम्पा होती है उसे हानि होने पर चिन्ता नही होती । मान लीजिए, किसो व्यापारी ने रूई की गाँठों का वीमा उतरा लिया है । अब कदाचित् उन गाठो मे प्राग लग जाये तो क्या उस व्यापारी को चिन्ता होगो ? वह तो यही कहेगा कि मेरा क्या बिगडा ? मैंने तो पहले ही बीमा उतरा लिया है ! इसी प्रकार जिसके हृदय में सच्ची अनुकम्पा होती है वह मनुष्य अपनी समन्त वस्तुएँ परमात्मा को समर्पित कर देता है और इसी कारण किसी भी वस्तु का नाश होन पर भी उसे चिन्ता नही होती । इतना हो नही, अपने प्राण तक चले जाने पर भी अनुकम्पाशील मनुष्य को किसी प्रकार की चिन्ता नहीं होती । कहा भी है-
चाहत जीव सबै जग जीवन,
देह समान नहीं कछु प्यारो ! संयमवन्त मुनीश्वर को,
उपसर्ग हुए तन नाशन हारो | तो चिन्ते हम आतमराम,
प्रखड : बाधित रूप हमारो । देह विनाशिक सो हम तो -
नह शुद्ध चिदानन्द रूप हमारो ॥
समार का कोई भी प्राणी अपना जीवन नष्ट नहीं करना चाहता, क्योंकि देह सभी को प्रिय है । देह के वराबर अन्य कोई भी वस्तु प्रिय नहीं है । ऐसा होने पर भी सयमवन्त मुनीश्वर देहान्तकारी कष्ट उपस्थित होने पर भी चिन्ता नही करते । वे इसी प्रकार विचार करते हैं कि