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१२४-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
भगवान् ने फर्माया-मुहसारण अणुप्स्यत्त जणयइ ' अर्थात हे गौतम | सुखगय्या पर सोने से मन की अव्याकुलता उत्पन्न होती है अर्थात् मन मे अनुत्सुकता पैदा होती है ।
मन में अव्याकुलता किम प्रकार उ पन्न होती है, इसके लिए टीकाकार कहते हैं -जिन कारणो से मन में आघातव्याघात या प्रत्यावात होता है, उन कारणो को तज देने से मन मे निराकुलता या अनुत्सुकता पैदा होती है । मन में निराकुलता उत्पन्न होना ही मुखशय्या का परिणाम है । जैसे आग के कारण पानी में उबाल पाता है और आग के ऊपर से पानी उतार लेने पर प नी नहीं उबलता, उसी प्रकार जिन कारणो से मन मे चिन्ता या व्याकुलता बढती है, उन कारणो का त्याग कर देने से मन निश्चित और निराकुल बन जाना है । मन के निराकुल वन जाने मे मन की चचलता घट जाती है अथवा मिट जाती है और फलस्वरूप प्रात्मा को शाति मिलती है । जो पुरुप दूसरो की आशा या अपेक्षा नही रखता और देव सम्बन्धी कामभोगों की भी अभिलापा नहीं करता, उस पुरुप के हृदय में किसी प्रकार की व्याकुलता नही रहती । जो मनुष्य विषयसुख को विपमय और तुच्छ मानता है, उसके मन मे आकुलताव्याकुलता रह नहीं पाती।
विपयमुख की इच्छा न करने से मन अनुत्सुक बनता है । मन अनुत्सुक बनने से अर्यान् विषयसुख की इच्छा न होने मे हृदय में अनुकम्पा उत्पन्न होती है। अनुकम्पा की व्याख्या करते हुए कहा है- अनुकूल कपन-चेष्टन अनुकपा।' अर्थात् दूसरे का दुख देखकर कांप उठना और दूसरे के