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११८ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ३ )
लतारहित होता है । परन्तु तुम लोग परतन्त्र हो और तुम्हारा मन व्याकुल रहता है, फिर भी अपने आपको सुखी मान रहे हो, यह आश्चर्यजनक बात है । मन को व्याकुल न होने देना ही सच्चा सुख है । वाह्य पदार्थों में सुख नही है । इस कथन का सार यह है कि मन की अव्याकुलता ही सुखशय्या है और मन की व्याकुलता ही दुखशय्या है । सुन्दर महल में रहने पर भी और मिष्ट भोजन करने पर भी अगर मन व्याकुल हुआ तो दुःख उत्पन्न होता है । इसके विपरीत घास की झोपडी मे रहते हुए भी और रूखासूखा भोजन करने पर भी अगर मन निराकुल हुआ तो सुख उत्पन्न होता है । इस प्रकार मन की व्याकुलता से दुःख पैदा होता है श्रोर मन की अव्याकुलता से सुख पैदा होता है । इसके समर्थन मे आगम में कहा है।
त संथारं निसन मुणिवरो नट्टरागविम्मोहो । पावइ ज मुत्तिसुह कुतो तं चक्कवट्टीए ? ॥
अर्थात् -- घास के विछोने पर सोने वाले, राग-द्वेष, मोह आदि को नष्ट करने वाले मुनिवर जिस आनन्द का का उपभोग करते हैं, वह बेचारे चक्रवर्ती को भी कहाँ नसीव है ?
बाह्य वैभव कैसा ही क्यो न हो, मन अगर व्याकुल रहता है तो दुख ही समझना चाहिए और बाह्य वैभव थोडा हो या न हो किन्तु मन व्याकुल हो तो सुख ही है, ऐसा मानना चाहिए । इस कथन के अनुसार जो साघु पराधीन है और जिसका मन व्याकुल रहता है वह दुःखी है । जो साघु स्वाधीन है, जो अपना काम आप कर लेता