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उनतीसवां बोल - ११५
तुमने पराधीनता बुलाई है और इस कारण आज अधिक दुख फैला हुआ है । आज तुम्हारे अन्दर पराधीनता इतनी पेठ गई है कि तुम्हे स्वाधीनता का विचार तक नही आता । मगर एक बात सदा ध्यान मे रखना, सच्चा सुख सदैव स्वाधीनता मे ही है । पराधीनता मे सुख नही, दुख ही है | इसलिए भगवान् ने कहा है - जो पुरुष स्व लाभ मे ही आनन्द मानता है, पर लाभ की अपेक्षा नही रखता, वही पुरुष सुखशय्या पर शयन करने वाला है ।
जो पुरुष भोजन तो खाता है परन्तु भोजन बनाना नही जानता, विचार करो कि वह मनुष्य सुखशय्या पर सोने वाला है या दुखशय्या पर सोने वाला है ? बचपन में मैं भाई - बन्दो के साथ मगलेश्वर गया था । हम जितने जने गये थे, उनमे से सिर्फ एक आदमी रसोई बनाना जानता था, और किसी को भोजन बनाना नही आता था । जानकार आदमी ने रसोई बनाई और हम सब ने खाई वापस लौटने पर हममे से एक लडके ने अपनी माता से कहा - ' अव अपन कही बाहर चलेंगे तो उस रसोई बनाने वाले आदमी को साथ ले चलेंगे ।
उस
माता ने उत्तर मे कहा वह रसोई बनाने वाला तुम्हारे बाप का नौकर नही है कि तुम्हारे साथ आएगा ।
इस प्रकार जो मनुष्य पराधीन रहता है उसे कष्ट सहन करने पडते हैं और कटुक वचन भी सुनने पडते हैं । इसी कारण भगवान् ने जगत् के जीवो को सबोधन करके पराधीनता मे दुःख और स्वाधीनता मे सुख बतलाया है । सुखशय्या पर सोना अच्छा है और दुखशय्या पर सोना दुखदायक है ।
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