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अट्ठाईसवां बोल-८५
आग की प्रेरणा से ही वह उबलता है, और यह प्रेरणा बाहरी होने के कारण रोकी भी जा सकती है । इसी प्रकार आत्मा को भवभ्रमण और अस्थिर रखने की प्रेरणा करने वाले कर्म हैं । ।र्मों की यह प्रेग्णा बाहरी और बनावटी होने के कारण रोकी जा सकती है। इसी कारण भगवान् ने फर्माया है कि पूर्वसचित कर्मों का क्षय (व्यवदान) करने से जीवात्मा अक्रिय दशा प्राप्त करता है और फल स्वरूप सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर शांत हो जाता है ।
भगवान् का यह कथन इतना सरल और सत्य है कि सभी की समझ में आ सकता है। इस सत्य कथन मे किसी को सदेह करने की गुंजाइश नही है । शास्त्र का कथन है कि आत्मा मे जो कुछ भी अस्थिरता पाई जाती है वह योग की चपलता की बदौलत ही है। योग का निरोध करने से आत्मा की अस्थिरता मिट जाएगी और आत्मा 'स्थिर' तथा 'शात' हो ज एगा ।
भगवान् ने तो सब जीवात्माओ को उद्देश्य करके आत्मा को स्थिर बनाने का उपदेश दिया है, परन्तु लोगो का आत्मा तो घुडदौड के घोड़े की तरह दौडधूप ही करना चाहता है । ऐसी दशा मे तुम्हारे आत्मा को शाति किस प्रकार मिल सकती है ? घुडदौड के घोडे चाहे जितनी दौड लगावे, आखिर उन्हें शाति तो तब ही मिल सकती है, जव वे दौड बन्द करके स्थिर होते हैं । हमेशा दौड़ते रहना न ठीक है और न शक्य ही है ।।
इसी प्रकार आत्मा इस ससार मे चाहे जितनी दौडधूप करे, मगर आखिर वह जब स्थिर होगा तभी उसे सच्ची