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६२-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
परन्तु इन दोनो प्रकार के शुभाशुभ कर्मों द्वारा आत्मा तो विकृत होता ही है । शुभाशुभ कर्मों की इस विकृति से आत्मा जब छुटकारा पाता है तभी वह अपने असली स्वरूप मे स्थिर होता है । इसी कारण शास्त्रकारो ने पुण्य और पाप दोनो प्रकार के शुभाशुभ कर्मों को अन्त में त्याज्य बतलाया है।
जीवात्मा मे जब तक बालभाव है-अज्ञान दशा हैतब तक वह शुभ कर्मों को शुद्ध समझता और उसी में आनन्द मानता है । परन्तु कर्म चाहे वह शुभ ही क्यो न हो, आत्मा को तो अशुद्ध ही बनाता है । जो लोग अपने आत्मा को शुद्ध करना चाहते हैं उन्हे तो शुभ और अशुभ दोनो प्रकार के कमो का त्याग करना पडेगा और आत्मा को कर्म रहित बनाना पडेगा ।
व्यवदान का फल बतलाये हुए भगवान् ने शुक्लध्यान को चौथी अवस्था -अक्रिय दशा की बात कही है । अक्रिय दशा का अनुभव मोक्ष जाने के समय ही होता है। मैं अब तक शुक्लध्यान की चौथी अक्रिय अवस्था का अनुभव नहीं कर सका हू, परन्तु जो महापुरुष तेरहवें गुणस्थान मे पहुच कर चौदहवे गुणस्थान की स्थिति प्रत्यक्ष देख रहे हैं, उनका कहना है कि अक्रिय दशा प्राप्त होते ही आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । चौदहवे गुणस्थान की स्थिति, अ, इ, उ, ऋ, ल' इन पाच हस्व स्वरो के उच्चारण मे जितना समय लगता है उनने समय को है। इतने अल्प समय में आत्मा अक्रिय होने पर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यद्यपि मोक्ष जाने मे आत्मा को.इतना ही समय लगता है, तथापि मोक्ष