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१०२ - सम्यक्त्वपराक्रम (३
कहते हैं - शास्त्र मे कही मुख्य रूप में कोई बात कही गई है और कही गौण रूप से कही गई है । ऐसा देखा जाता है ।
व्यवदान का फल वतलाते हुए अक्रिय तथा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण और सव दुखो का श्रन्त होता है, ऐसा कहा गया है । इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब सिद्ध होना कहा और सिद्धि मे प्रत्येक बात का समावेश हो जाता है तो फिर बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण और सब दुखो का अन्त करने की बात किस प्रयोजन से कही गई है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि कोई वात एकार्थ नाना घोषो मे भी कही जती है। तदनुसार यहाँ व्यवदान का फल भी एकार्थ नाना घोष से कहा है । सिद्ध होने वाला व्यक्ति वृद्ध भी हो जाता है, मुक्त भी हो जाता है, परिनि र्वाण भी पा लेता है और सब दुखो का अन्त भी कर डालता है । ऐसा होने पर भी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त आदि शब्दों को जुदा-जुदा कहने का कारण, मेरी समझ से, यह मालूम होता है कि जैनशास्त्रानुसार सिद्ध होने वाला बुद्ध भी होता है । कुछ लोग मोक्ष मे अज्ञान - अवस्था बतलाते हैं । जैन - शास्त्र इस मान्यता से सहमत नही है । मोक्ष मे अज्ञान - अवस्था मानने वालो के शब्दाघात से अपना पक्ष सुरक्षित रखने के लिए ही 'सिद्ध' कहने के साथ ही 'बुद्ध' होना भी कहा गया है । वास्तव मे तो सिद्ध होना और बुद्ध होना एक ही बात है । यहीं बात यहा नाना घोष से प्रकट
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किसी-किसी का कथन है कि सिद्ध को ज्ञान और दर्शन का उपयोग एक ही साथ होता है परन्तु आचार्यों का