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अट्ठाईसवाँ बोल-१०५
कुछ नही वच रहता, इसी प्रकार सिद्ध होने पर आत्मा नही बचता। जैनशास्त्र इस मान्यता से सहमत नही हैं । अत: बौद्धों के कथन को अमान्य प्रकट करने के लिए ही शास्त्रकारो ने सिद्ध, बुद्ध और मुक्त शब्द के साथ निर्वाण शब्द का भी प्रयोग किया है ।
निर्वाण शब्द के बाद शास्त्रकारों ने कहा है-'सब दुःखो का अन्त करता है।' सिद्ध होने मे और सब दुःखों का अन्त करने मे तात्त्विक दष्टि से कोई भेद नही है, फिर भी दूसरे लोगो की गलत मान्यता का निवारण करने के लिए ही सब दुःखो का अन्त करने का भी विधान किया है । जैनशास्त्र कर्म को ही दुख मानता है। श्रीभगवतीसूत्र मे गौतम स्वामी और भगवान् के बीच इस विषय में प्रश्नो. त्तर हुआ है । वह इस प्रकार है -
दुक्खी णं भते ! दुक्खेण पुट्ठ, कि अदुक्खो दुक्खेण पुढे ? __ अर्थात्- हे भगवन् । दुखी दुख से स्पृष्ट, होता है, अथवा अदुखी. दुख से स्पृष्ट होता है.? ,
___ इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-दुखी ही दुख से स्पृष्ट होता है । अदुखी दु.ख से स्पृष्ट नहीं होता।
इस प्रकार दुखी को ही दु ख का स्पर्श होता है । यहा सब दुःखो का अन्त करने के लिए कहा गया है, उसका फलितार्थ भी कर्म से रहित होना है। सब कर्मों को नष्ट कर देना अर्थात् सब दुखो का अन्त कर देना । यहा दुख शब्द से कर्म लेना चाहिए । दुखो का अन्त होने का अर्थ कर्मो का अन्त होना है। इसीलिए श्रीभगवतीसूत्र मे चौवीस