________________
१०८-सम्यक्त्वपराक्रम (३) या नही ? किसी भूखे आदमी को दूध पिलाया जाये तो दूध पीते ही उसकी आँखो मे कैसा तेज आ जाता है । दूध और दवा को इस बात का ज्ञान नही है फिर भी उसमे शक्ति अवश्य है । इसी प्रकार कर्म को यह ज्ञान नहीं है कि मुझमे कैसी शक्ति विद्यमान है, परन्तु जब कर्म आत्मा को लगते है तब वे अपना गुण प्रकट करते ही है । भाव-कर्म के चिकनेपन के अनुसार कर्म उदय मे आकर मुख या दु:ख
देते हैं ।
कहने का आशय यह है कि दुखी ही दुख से स्पृष्ट होता है । कुछ लोगो का कहना है कि आत्मा को कमंबधन ही नही होता, परन्तु जैनशास्त्र को यह कथन मान्य नहीं है । इसीलिए अर्थात् इस कथन का निषेध करने के लिए सिद्ध, बुद्ध, मुक्त तथा परिनिर्वाण होने के साथ ही सब दुखों के अन्त होने का कथन किया गया है।
कुछ लोग दुखों का अन्त करने का अर्थ, बेडी काटने के साथ पैर को भी काट डालने के भावार्थ मे करते हैं। उनका कहना है कि दुखों के साथ आत्मा का भी नाश हो जाता है मगर यह बात मिथ्या है । आत्मा दु.खो का अन्त होने पर सुखनिधान बन जाता है, नष्ट नहीं होता ।
भगवान् ने कहा है- व्यवदान से आत्मा अक्रियाअवस्था प्राप्त करता है और फलस्वरूप सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परिनिर्वाण पाता है तथा समस्त दुखो का अन्त करता है । भगवान् के इस कथन को हृदय मे उतार करे' हमे अपनी स्थिति का विचार करना चाहिए । अगर आप कर्मरहित हो गए होते तो अपने लिए किसी प्रकार के'