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"१०६-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
दण्डक के विषय में जो प्रश्नोत्तर किये गए हैं, उनमें भी यह कहा गया है कि सर्वार्थसिद्ध विमान के देव भी दुःख से स्पृष्ट होते है, क्योकि उनमें भी अभी तक कर्म शेष है।
और जिनमे भावकर्म शेष नही रहते वे दु.ख से स्पृष्ट नही होते ।
कहने का आशय यह है कि सिद्ध होने के साथ प्रात्मा कर्मरहित हो जाता है और सब दु खो से मुक्त हो जाता है । यहा एक प्रश्न यह रह जाता है कि कर्म आत्मा के साथ किस प्रकार लगते है ? कर्म स्वय आत्मा के साथ लगते हैं या ईश्वर की प्रेरणा से ? इस प्रश्न का उत्तर यह है , कि--अगर ईश्वर की प्रेरणा से कर्मों का आत्मा के साथ लगना मान लिया जाये तो ईश्वर के स्वरूप में अनेक विकृतिया और बाधाएँ उपस्थित होती है। उदाहरणार्थ- एक आदमी नदी में डूब रहा हो और उसे बाहर निकाल सकवे वाला दूसरा कोई मनुष्य खडा-खडा देख रहा हो, तो क्या उसे दयालु कहा जा सकता है ? जब ऐसे मनुष्य को भी दयालु नही कहा जा सकता तो फिर परम-दयालु कहलाने वाला परमात्मा क्या जीवों को कर्मबन्धन से बाँध कर ससारसागर में डुबाएगा ? वास्तव मे । ईश्वर कर्ता नही है और न वह किसी जीव को कर्म-बन्धन से बान्धता है । गीता मे भी कहा है
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु ।
अर्थात्-प्रभु न लोक का कर्ता और न कर्मों को उत्पन्न करता है।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि अगर ईश्वर