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१००-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
स्थान में जाना चाहते हैं, उनके लिए तो भगवान् ने मोक्षा का मार्ग बतलाया ही है पर जो लोग सिद्धि नही चाहत उन्हे मोक्ष का मार्ग बताना वृथा है । आत्मा मे जब तक बालबुद्धि है तब तक आत्मा सुख मे दुख और दुख मे सुख मानता है । बालजीव ससार के पदार्थों में सुख मानते है, परन्तु वास्तव मे प्रात्मा मे जो अनन्त सुख भरा हुआ है, उस सुख की थोड़ी-सी झाकी हो सासारिक पदार्थों मे आती है और इसी कारण -सासारिक पदार्थ सुखरूप जान पडते हैं । वास्तव मे पदार्थों मे सुख नहीं है। सच्चा मुख तो आत्मा मे ही भरा है। पदार्थो मे सुख मानना तो उपाधि है । इस उपाधि से मुक्त होकर आत्मा मे रहे हुए सुख की शोध और उसी का विकास करना चाहिए । ।
आत्मा में रहे हुए अनन्त सुग्व को विकसित करना ही सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होना है । ससार की उप घि से छुटकारा पाने के लिए अक्रिय बनने की परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए । ससार के समस्त दुखो का अन्त अक्रिया से ही होता है और अक्रिय दशा पूर्वसचित कर्मों का नाश करने से प्राप्त होती है । अत प्रत्येक आत्महितैषी को तप द्वारा पूर्वसचित कर्मो का क्षय करके अक्रिय दशा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
व्यवदान के फल के विषय मे विचार करते हुए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि तप द्वारा पूर्वसचित कर्मों का नाश होता है, यह बात सुनिश्चित है, तो फिर व्यवदान का फल पूछने की क्या आवश्यकता थी ?
टीकाकार यह प्रश्न खड़ा करके उसका समाधान करते