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१४-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
क्या आशय था ? इस बात पर यथामति और यथाशक्ति विचार करना आवश्यक है।
ससार मे सिद्धि का स्वरूप भिन्न भिन्न दष्टियो से माना जाता है । कुछ लोग दीप-निर्वाण के समान अर्थात दीपक बुझ जाने के समान सिद्धि का स्वरूप मानते है । उनका कहना है कि जैसे वुझ जाने के बाद दीपक कुछ भी नही रहता, उसी प्रकार आत्मा सिद्ध होने के बाद कुछ भी नही रहता । परन्तु जैनशास्त्र मे सिद्धि का ऐसा स्वरूप नही स्वीकार किया गया है । अतः दीप निर्वाण के समान सिद्धि का स्वरूप मानने वालो का निषेध करने के लिए ही _ 'सिद्ध' शब्द के साथ 'बुद्ध' शब्द का उपयोग किया है ।
कुछ दार्शनिको की यह मान्यता है कि सिद्धि अवस्था मे आत्मा के सभी विशिष्ट गुण नष्ट हो जाते है । आत्मा का अस्तित्व तो रहता है मगर उसकी 'बुद्धि' अर्थात् ज्ञान का सर्वथा नाश हो जाता है । मतलब यह हुया कि सिद्धिदशा मे श्रात्मा पत्थर की तरह जड हो जाता है । 'सिद्धि' शब्द के साथ 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग करके शास्त्रकारो ने इस भ्रम का भी निवारण कर दिया है।
आत्मा के विकासक्रम के अनुसार आत्मा पहले 'वुद्ध' होता है और फिर सिद्ध होता है । तेरहवें गुणस्थान में 'बुद्ध' हो ज ता है । मगर 'सिद्ध' नहीं होता । सिद्धदशा उसके बाद प्राप्त होती है । इस क्रम के अनुसार पहले 'बुद्ध'
और फिर 'सिद्ध' कहना चाहिए था, मगर शास्त्रकारो ने पहले 'सिद्ध' और बाद मे 'वुद्ध' कहा है । इसका कारण भी यही है । वैशेषिकदर्शन सिद्ध होने से पहले तो आत्मा को