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६६ - सम्यक्त्वपराक्रम (३)
प्रमाणपत्र मिलने पर ही अभ्यास का महत्व बढता है, उसी प्रकार पूर्णज्ञानी होने का प्रमाणपत्र सिद्धि प्राप्त होने पर मिलता है । जव अभ्यास करने का प्रमाणपत्र मिल जाता है तभी जनसमाज मे अभ्यास की कीमत आकी जाती है । इसी प्रकार सिद्ध होने से पहले पूर्णज्ञान रहता ही है मगर उसका प्रमाणपत्र सिद्धि प्राप्त होना है । शास्त्र में कहा है कि बुद्ध होने से कोई नवीन ज्ञान नही आ जाता । ज्ञान तो तेरहवे गुणस्थान से ही होता है, परन्तु सिद्ध होने के वाद वह नष्ट नही हो जाता । यह बताने के लिए 'सिद्ध' शब्द के साथ 'बुद्ध' होने का भी कथन किया गया है ।
कुछ लोगो का कहना है कि सिद्ध ग्रात्मा भी मसार मे अवतार धारण करता है - जन्म लेता है। एक बार सिद्ध हो जाने पर वह आत्मा जव संसार मे किसी प्रकार की विपरीतता देखता है तब राग-द्वेप से प्रेरित होकर फिर ससार में अवतार लेता है । भगवान् महावीर ने जो सिद्धि कही है, वह इस प्रकार की नही है । शास्त्रकार तो स्पष्ट कहते है कि जो आत्मा सिद्ध हो जाता है, वह जन्म-मरण से मुक्त' भी हो जाता है । यही वात विशेष स्पष्ट करने के लिए भगवान् ने 'सिद्ध' और 'बुद्ध' शब्दो के साथ 'मुक्त' शब्द का भी प्रयोग किया है। गीता मे भी कहा है - यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद् धाम परमं मम ।
अर्थात् - जहा जाने के बाद पीछे लौटना नही पडता, वही मेरा धाम है |
गीता मे तो ऐसा कहा है, फिर भी उसके अर्थ का खयाल न करके कहा जाता है कि सिद्ध होने के बाद भी