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८८-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
काम साधुओ को मार्फत ही कराना चाहते हो और कहते हो कि साधु यह काम नहीं करते तो समाज का खाते क्यो हैं ? खाने के बदले वे हमारा क्या काम करते है ? ऐसा कहना तुम्हारी भूल है । साधु तुम्हारे भरोसे नहीं है । वे अपने सयम का और अपने पूर्वजो द्वारा बाधे हुए नियमो का पालन करते हुए चाहे जहा से अन्न-पानी ला सकते है। इसलिए तुम साधुओ के सिर ही सारी जबावदारी मत मढो। विचार करो कि यह उत्तरदायित्व तुम्हारा भी । है । तुम हमारे माथे उत्तरदायित्व मढते हो मगर हम लोग कहाकहा पहुचे ? आत्मसुधार और धर्मसुधार के लिए तो साधु यथाशक्य प्रयत्न करते ही है । परन्तु तुम लोग जव विदेश जाते हो तो क्या अपने साथ अपना धर्म भी वहा ले जाते हो? कहा जा सकता है कि ऐसा करने में धार्मिक बाधा आती है । इसका उत्तर यह है कि ऐसा कहने वाला भूल करता है । चम्पा का पालित श्रावक समुद्रयात्रा करके पिहुड नगर गया था । उसकी इस समुद्रयात्रा मे क्या कुछ शास्त्रीय विरोधवाधा थी ? आज शास्त्र का रहस्य पूरी तरह समझने का प्रयत्न नही किया जाता, शास्त्र का सिर्फ दुरुपयोग किया जाता है।
जैनशास्त्र मे ऐसी कोई सकीर्णता नही है। इतना ही नही, ससार मे जो सकीर्णता फैली हुई थी जैनशास्त्री ने उसे हटाया है और बताया है कि समुद्रयात्रा करना ऐसा कोई भयकर पाप नहीं है । जिस पालित श्रावक ने समुद्र यात्रा की थी, उसके विपय मे शास्त्र में कहा गया है कि पालित श्रावक श्रावको मे पडित और जैनशास्त्रो मे कुशल था उस पालित श्रावक की समुद्रयात्रा मे जो धर्म वाधक