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अट्ठाईसवां बोल-८७
कर दो-चार सोढियो कूदना चाहता है तो उसके नीचे पडने की अधिक सभावना रहती है । इसलिए हमे ऐमी छलाग नही मारनी चाहिए कि इस समय हम जिस गुणस्थान मे हैं, उसमे भी नीचे पड जाए । हम लोगो को तो आत्मा का विकास करना है । अगर हम आलसी होकर बैठे रहेगे तो आत्मविकास कैसे कर सकेंगे ? साथ ही एकदम छलॉग मारकर ऊपर चढने का प्रयत्न करगे तो नीचे गिरने का भय है । अतएव मध्यम माग का अवलम्बन करके क्रमपूर्वक आत्मविकास करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
आजकल धार्मिक सुधार करने के लिए मध्यम श्रेणी के लोगो की अत्यन्त आवश्यकता है । हम साधुओ को पूर्वकाल के महात्माओ ने जो जबावदारी सौपी है, उसे एक किनारे रख देना और जो यम-नियम बताये हैं, उन्हे छोड वैठना हमारे-साधुओ के लिए उचित नही है ।
दूसरी तरफ, तुम लोग जैसा जीवनव्यवहार चला रहे हो, वैसा ही चालू रखोगे तो धर्मोन्नति होना कठिन है । पहले के जमाने मे जो कुछ होता था वह उस जमाने के मुताबिक होता था। पर अब ऐसा जमाना आ गया है कि हमे समय नुसार धर्म के प्रचार करने का प्रयत्न करने की खास आवश्यकता है । पर ले जमाने मे आजकल की तरह धार्मिक पाठशालाए नही थी। उस समय साधु, श्रावको को प्रतिक्रमण आदि का धार्मिक शिक्षण देते थे। इसके सिवाय उस समय आजकल की भाति व्यावहारिक शिक्षा भी नही दी जाती थी। जव लौकिक शिक्षा वढ गई है तो धार्मिक शिक्षा देने की आवश्यकता भी बढ़ गई है। परन्तु तुम लोग तो ऐसे सब