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८६-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
शाति मिलेगी । जहाँ त आत्मा स्थिर नही होता तहां तक आत्मा को शांति मिलना सभव नही । व्यवहारदष्टि से विचार करने पर भी यह व त पुष्ट होती है। तुम कार्यवश बाजार जाकर चाहे जितनी दौडधाम करो, मगर धर आकर थिर और शात हुए बिना व्यावहारिक शांति भी नहीं मिल सकती । यही बात दृष्टि मे रखकर बुद्धिमान पुरुपो ने कहा है कि मनुष्य मे न तो ऐसा आलस्य ही होना चाहिए कि वह कोई काम ही पूरा न कर सके और न ऐसी चचलता ही होनी चाहिए कि जिसके कारण शान्ति ही नसीब न हो सके । मनुष्य को मध्यम मार्ग पर चलने की आवश्यकता है ।
भगव न् ने योगनिरोध करने की जो बात कही है, वह चौदहवें गुणस्थान की है, और अपने इस काल मे ऊचे से ऊँचे छठे व सातवे गुणस्यान तक ही पहुच सकते है । अतएव हमे दौडने की ऐसी उतावली नहीं करनी चाहिए कि रास्ते मे कही ठोकर खाकर गिर पडे, और ऐसी स्थिति हो जाय कि न इधर के रहे न उधर के रहे ।
शास्त्र के इस कथन को अमल मे किस प्रकार लाया जाये, यह एक विचारणीय प्रश्न है। यह बात तो हमे स्मरण मे रखनी चाहिए कि चौदहवे गुणस्थान मे पहुचने से अक्रिय दशा प्राप्त होती है। अतएव एकदम ऐसा प्रयत्न नही करना चाहिए कि चौदहवें गुणस्थान की स्थिति प्राप्त करने के बदले और नीचे गिरने की नौबत आ जाए ।
किसी भी ऊँचे स्थान पर चढने के लिए सीढी-सीढी चढ़ना पडता है। अगर कोई मनुष्य एक साथ, छलाग मार