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८४-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
हो जाना व्यवदान का फल है ।
शास्त्र मे शुक्लध्यान के चार भेद बतलाये गए हैं । उनमें चौथा भेद अक्रिय अवस्था है । यह अक्रिय अवस्था मोक्षप्राप्ति के समय ही प्राप्त होती है । अक्रिय अवस्था प्राप्त करन से आत्मा मन, वचन, काय के योग का निरोव करके शैल-पर्वत की भाति अडोलस्थिर अकप वन जाता है। शास्त्र में कहा है अात्मा मे जब तक कर्मों का प्रभाव वना रहता है तब तक आत्मा स्थिर नहीं हो सकता । कर्म जब नष्ट हो जाते हैं तभी आत्मा स्थिर और शात बन सकता है।
समुद्र का पानी स्वभाव से स्थिर है, परन्तु पवन की प्रेरणा के कारण चचल बन जाता है । पानी का स्वभाव तो स्थिर रहने का है, परन्तु पानी से भरा बर्तन आग पर रखने से, आग' को प्रेरणा पाकर पानी उबलने लगता है। एं जिन मे आग की प्रेरणा से ही पानी के द्वारा भाप उत्पन्न होती है। उसी भाप के कारण एजिन दूसरे डब्वो को एक स्थान से दूसरे स्थान पर झपाटे के साथ ले जाता है और छोड आता है । इस प्रकार रेलगाडी का सारा व्यवहार प्रेरणा से ही चल रहा है ।
इसी प्रकार कर्म की प्रेरणा से आत्मा अपनी गाडी चौरासी लाख जीवयोनियो मे दौडाता फिरता है। अब तो आत्मा को भव-भ्रमण की यह दौडधाम बन्द करके अपने आपको 'स्थिर' करना चाहिए । आत्मा को स्थिर करने के लिए ही आत्मा को कर्म-रहित अक्रिय होने की आवश्यकता है ।
जैसे पानी का स्वभाव उबलने का नही है, फिर भी