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अट्ठाईसवां बोल
व्यवदान
सम्यक्त्व मे पराक्रम करने के लिए भगवान् ने ७३ बोल कहे है । उनमे से २७ बोलो का विवेचन विस्तारपूर्वक किया जा चुका है । ५७ वें बोल मे तप के विषय मे प्रश्न किया गया था कि - 'तवेण भते । जीवे कि जणयइ ?' अर्थात् हे भगवन् । तपश्चर्या से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने फर्माया- 'तवेर्ण जीवे वोदाण जणयइ ।' अर्थात् -तपश्चर्या करने से व्यवदा। अर्थात् पूर्व सचित कर्मों का क्षय होता है।
अब गौतम स्वामी यह प्रश्न कर रहे हैं कि पूर्व सचित कर्मो का क्षय करने से, व्यवदान से-जीव को क्या लाभ होता है ?
- मूलपाठ प्रश्न वोदाणेणं भते! जीवे कि जणयइ ?
उत्तर- वोदाणेण अकिरियं जणयइ, अकिरियाए भवित्ता तो पच्छा सिझइ, बुज्झइ मुच्चइ, परिनिन्वायइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥२८॥