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८०-सम्यक्त्वपराक्रम (३) का प्रशस्त मुख देखकर वैरी भी अपना वैर भूल जाता है। तपोधनी का मुख शात, मन प्रसन्न और वचन मधुर होता है । तपस्वी की मुख मुद्रा पर जाति और सौम्यता का भाव टपकता रहता है। यह सौम्य भाव देखने मात्र से तपस्वी का तपस्तेज प्रतीत हो जाता है। तपस्वियो की प्रशांत मुखमुद्रा से ही विदित हो जाता है कि इन महात्मा की तपश्चरण आदि गुणसम्पति कितनी है ! तपस्वियो की तप समृद्धि किस प्रकार खयाल मे आ जाती है, इस बात का वर्णन श्री उत्तराध्ययनसूत्र के बीसवें अध्ययन मे किया गया है । अनाथी मुनि को देखकर राजा श्रेणिक कहने लगा-- अहो ! इन मुनि मे कैसी क्षमा है । कैसा इन्द्रियमिग्रह है। मुनि कितने सौम्य है ! इनका कैसा तपस्तेज है ।
राजा ने अनाथी मुनि की क्षमा या तप साक्षात नही देखा था। फिर भी उनकी मुखमुद्रा पर से ही अनुमान कर लिया था कि यह मुनि क्षमासागर और तपस्वी हैं । तपस्वी का मुख सदेव सौम्य रहता है।
तपस्वी महात्मा या तो स्वाध्याय मे या परमात्मा के ध्यान मे लीन रहते हैं अथवा मौन का सेवन करते है। वे अधिक नही बोलते और जब बोलते है तो तप के लिए ही बोलते हैं अर्थात् दूसरो को निर्भय बनाने के लिए ही बोलते है । गर्दभालि मुनि ध्यान-मौन मे थे, परन्तु सयति राजा को भयभीत देखकर उसे निर्भय बनाने के लिए ही वह वोले थे । इस प्रकार तपस्वी मन की गति को आत्मा का निग्रह करने की ओर झुकाते है। वे अन्य कर्मों में मन का उपयोग नहीं करते । तपस्वियो के भाव उज्ज्वल होते हैं, मलीन नही । तात्पर्य यह है कि जिस तप द्वारा मान