________________
६७८-सम्यक्त्वपराक्रम (३) ने श्रीकृष्ण से भी यही कहा था कि-हे कृष्ण । उस पुरुष पर क्रोध मत करो । उसने तो गजसुकुमार मुनि को सहायता दी है । यद्यपि सोमल ब्राह्मण ने उनके शिष्य के माथे पर दहकते हुए अगारे रखे थे, फिर भी भगवान् ने उस पर क्रोध नहीं किया और श्रीकृष्ण को भी क्रोध करने से रोका। इस प्रकार तपस्वी किसी को भयभीत नही करते और जो भयभीत होते हैं, उन्हे अपनी अमृतवाणी द्वारा आश्वासन देकर निर्भय बनाते है ।
कहने का आशय यह है कि तपस्वी की वाणी में शुद्धि और पवित्रता होनी चाहिए । इतना ही नहीं, वरन् उसके मन में भी शुद्धि और पवित्रता होना आवश्यक है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि प्रकट मे वाणी द्वारा कुछ और कहा जाये तथा मन मे दुर्भावना रखी जाये । जो तपस्वो अपने मन और वचन में एकता नही रखता उसका तप प्रशस्त नही है । सच्चा तप तो वही है जिसके द्वारा मन शरद्-ऋतु के चन्द्रमा के समान निर्मल बन जाता है । मन मे जब रजोगुण या तमोगुण होता है तब मन निर्मल नहीं रह सकता। जिसका मन रजोगुण या तमोगुण से अतीत हो जाये अथवा त्रिगुणातीत हो जाये तो समझना चाहिए कि वह सच्चा तपस्वी है और उसका मन निर्मल है । जब तपस्वी का मन त्रिगुणातीत होकर निर्मल हो जाता है तभी तपस्वी का मन फलता है अर्थात तप का फल व्यवदान प्राप्त होता है । जैसे चन्द्रमा गीतलता प्रदान करता है और अपने इस कार्य में वह राजारक का भेद नही रखता, अपना सौम्य प्रकाश सभी को समान रूप से प्रदान करता है, उमी प्रकार जो महात्मा मन मे किसी के प्रति, किसी भी प्रकार का भेद नही रखता