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सत्ताईसवाँ बोल-७७ तप करने वाले की वाणी पवित्र और प्रिय होती है। और जो प्रिय, पथ्य और सत्य बोलता है उसी का तप वास्तव में तप है। असत्य या कटुक वाणी कहने का तपस्वी को अधिकार नहीं है । तपस्वी सत्य और प्रिय वाणी ही बोल सकता है । तपस्वी को भूल कर भी ऐसे वचनो का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिसमे दूसरो का दुख या भय उत्पन्न हो । तपस्वी तो भयभीत का भी अपनो अमृतमयी वाणी द्वारा निर्भय बना देता है। जब सयति राजा भयभीत हो गया था तब गर्दभालि मुनि ने उसे आश्वासन देते हुए कहा था ~'पृथ्व पति । तू निभय हो । भय मन कर।' वह मुनि तपोधन थे, ऐसा शास्त्र का उल्लेख है। तपोधन दूसरो को निर्भय बनाता है और अपनी वाणी द्वारा किसी को भी भय नहीं पहुचाता ।
भयभीत व्यक्ति को निर्भय बनाते समय तपोधन मुनि भयभीत व्यक्ति के अपराधो की ओर नही देखते । उनका दष्टिकोण भयभीत को निर्भय बनाना ही होता है । जो पुरुष तपस्वी को गालियां देता है या मारपीट करता है, उसे भी तपस्वी कटुक वचन कहकर भयभीत नहीं करता, प्रत्युत उसे अभयदान देकर निर्भय बनाता है । तपम्वी दूसरो द्वारा दिये हुए कष्टो को प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लेता है मगर सामर्थ्य होने पर भी दूसरो को भयभीत नहीं करता। यही तपस्वी की बड़ी विशेषता है । गजसुकुमार मुनि मे क्या शक्ति नही थी ? फिर भी उन्होने मस्तक पर धधकते हुए अगार रखने वाले सोमल ब्राह्मण को वचन से भी भयभीत नही किया । बल्कि उसे परम सहायक समझ कर अभयदान दिया । इतना ही नही, गजसुकुमार के गुरु भगवान् नेमिनाथ