________________
सत्ताईसवां बोल-७४
सभी को शान्ति पहंचाता है, वही कर्मों का नाश कर के सुक्त हो सकता है । इस विषय मे गीता मे कहा है
मन प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहम् । भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥
तप मानसिक, वाचिक और कायिक के भेद से तीन प्रकार का है। तीनो प्रकार से तप करने वाले का ही तप परिपूर्ण कहलाता है। पूर्ण तपस्वी का मन प्रसन्न और शात रहता है।
किसी धन के अभिलाषी को अनायास ही धन मिल जाये तो वह कितना प्रसन्न होता है ? धन के अभिलाषी पुरुष के लिए जो धन आनन्ददायक है वही धन साधुओ के लिए हानिकर है । चोर का भय प्रायः धनिको को होता है । राजा धनिको को ही अधिक सताता है पर तपस्वियों को किसी का भय नही होता । इस प्रकार धन कोई उत्तम वस्तु नही है, फिर भी गृहस्थों को धन रखना ही पड़ा है, क्योकि धन के बिना ससार-व्यवहार नही चता । जैसे ससार-व्यवहार के लिए धन का होना प्रावश्यक समझा जाता है, उसी प्रकार साधुओ के लिए तप का होना अत्यन्त आवश्यक है। गृहस्थों का धन रुपया-पैसा है और साधुओ का चन तप है। साधुओ के लिए शास्त्र में कहा है-'अणगारे तवो. घणे ।' अर्थात् साधु तपोधनी है । जो मुनि तपोधनी होता है, उसका मन गगा के जल के समान निर्म न होता है । गगाजल मे लोग गदगी डालते हैं तो गगा उस गदगी को भी साफ कर देती है। इसी प्रकार तपोधनी मुनि गदे मनुष्यो को वन्दे अर्थात् परमात्मा के भक्त बना देते है । तपोधनी