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अट्ठाईसवां बोल-८६
नही बना, वही धर्म आज वाधक कैसे हो सकता है ? अतएव धर्म समुद्रयात्रा मे बाधक है, ऐसा बहाना न करके जहां कही तुम जाओ, अपने धर्म को भी साथ लेते जाओ । सदैव ध्यान रखो कि हमारा धर्म हमारे साथ है और हमारी यात्रा का ध्येय धर्म का प्रचार करना है । तुम यही समझो कि हम अपने धर्म का प्रचार करने के लिए ही विदेश से आये हैं। क्या इस प्रकार धर्म का प्रचार करते रहने से तुम्हारे किसी व्यावहारिक काम मे बाधा खडी होती है ? आर्यों के विषय में कहा जाता है कि आर्य लोग जब भारत में आये थे तब वे अपना धर्म और अपनी सस्कृति भी साथ लाए थे । जब आर्य लोग अपना धर्म और अपनी सस्कृति साथ लाए थे तो फिर तुम लोग अपने जैनधर्म को और अपनी जैनसस्कृति को चिदेश मे साथ क्यो नही ले जा सकते ? तात्पर्य यह है कि धर्मप्रचार के विषय मे निष्क्रिय हो बैठने से काम नहीं चल सकता । श्रावको को भी अपना उचित भाग अदा करना चाहिए ।
गौतम स्वामी का प्रश्न यह है कि व्यवदान से अर्थात् पूर्वसचित कर्मों का क्षय करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा है - हे गौतम! प्रथम तो पूर्वसचित कर्मों का क्षय होना ही अत्यन्त कठिन है, परन्तु जब कर्मों का क्षय हो जाता है तो जीवात्मा को अक्रिय अवस्था प्राप्त हो जाती है । यह अत्रिय अवस्था प्राप्त होने से आत्मा की अस्थिरता दूर हो जाती है और पूर्ण शांति प्राप्त होती है।