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सत्ताईसवां बोल - ८१
सिक शुद्धि हो वही सच्चा तप है । कर्म की निर्जरा करने के लिए अर्थात् व्यवदान फल प्राप्त करने के लिए जीवन मे तप को स्थान दो तो कल्याण होगा ।
साधुओ के लिए शास्त्र में कहा है
संजमेण तवसा प्रयाणं भावेमाणा विहरइ |
अर्थात् - जो तप-सयम द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विचरता है वही वास्तव में साधु है । ऐसा तपस्वी और सयमी साधु अपना और पर कर कल्याण साधन कर सकता है ।
पहले वतलाया जा चुका है कि जैनशास्त्र क्रियात्मक धर्म की प्ररूपणा करता है । इम प्रश्न से भी यह बात सिद्ध होती है । अतएव जो साधु साध्विी, श्रावक या श्राविका अपने को भगवान् के शासन का अनुयायी मानता हो, उसे . तप और सयम की आराधना करनी चाहिए | तप और सयम से ही आत्मा का कल्याण होता है । अतः मन, वचन और काय से तप एव सयम को अपने जीवन में प्रत्येक को स्थान देना चाहिए । ऐसा किये बिना आत्मकल्याण नही होता ।
कितनेक लोग दूसरे को कष्ट देने के लिए या अपना कोई स्वार्थ साधने के लिए भी तप करते हैं, मगर ऐसा तप इस तप मे नही गिना जा सकता । यहा जिस तप का वर्णन किया गया है, वह कर्मो का क्षय करने के लिए ही है । वास्तव मे सच्चा तप वही है जो दूसरो को कष्ट देने के लिए न किया गया हो, सिर्फ कर्मो की निर्जरा के उद्देश्य से किया गया हो ।