________________
सत्ताईसवां बोल-७३
पालन करने की प्रतिज्ञा में कर चुक हूं और इतना घन मेरे पास नही है । ऐसी स्थिति में प्राण त्याग देना ही श्रेयस्कर है । इस प्रकार सकल्प करके वह मरने के लिए रवाना हुआ । ररस्ते में उसे एक अपरिचित मनुष्य मिला। उसने नैपोलियत को एक थैली देकर कहा - 'जरा इस थैली को पकडे रहिए, मैं पेशाव करके अभी आता हू ।' नैपोलियन ने सोचा---' चलो, मरना तो है ही। मरने से पहले इसका भी कुछ काम कर दूं।' यो सोचकर नैपोलियन ने थैली अपने हाथ में ले ली। वह थैली लिये उस आदमी की प्रतीक्षा करता रहा, मगर थैली वाला न जाने कहा गायव हो गया! वह वापिस लौट कर नही आया। नैपोलियन ने थैली खोली और देखा तो उसमें उतना ही धन था जितना उसकी माता ने उसने मांगा था ।
अब इस बात पर विचार कीजिए कि नैपोलियन को वह धन कहा से मिला ? विचार करने से यही विदित होता है कि प्रतिज्ञा के प्रताप से ही वह धन नैपोलियन को प्राप्त हो सका।
ऐसी ही एक बात उदयपुर के महाराणा के विषय में सुनी जाती है । राणा जगल मे रहते थे। उस समय बादशाह फकीर बनकर राणा के अतिथिसत्कार-प्रेम की परीक्षा लेने आया । उसने राणा के पास पहुंच कर कहा - 'मुझे चादी की थाली मे, मेवा की खिचडी खाने के लिए दीजिए।' राणा की प्रतिज्ञा थी कि वह अपने पास आये अतिथि को निराश होकर नहीं जाने देता था। मगर जिस समय बादशाह पहुचा, उस समय राणा के पास मुट्ठी भर अन्न का