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तेईसवां बोल-३५ हो तो समझना चाहिए कि हमारे कर्मो की निर्जरा हो रही' है और जिससे कर्मों की निर्जरा हो वही धर्मकथा है। '
धर्मकथा से चित्त के विकार दूर होते हैं और चित्त को शान्ति मिलती है । इस कारण सव से पहले यह देख लेने की आवश्यकता है कि अपने विकार कौन-से हैं ? ड क्टर रोगी को दवा देने से पहले रोग का निदान करता है।' जब तक रोग का निदान न किया जाये तब तक दवा कैसे दी जा सकती है ? इसी तरह जबतक विकारो का पता न लगा लिया जाय तब तक यह बात कैसे जानी जा सकती है कि धमकथा सुनने से विकार दूर हुए हैं या नहीं? इस कारण सर्वप्रथम अपने विकारो को जान लेने की आवश्यकता है। विकारो मे सब से बडा विकार मोह है। मोह अन्य विकारो का बीज है । उसीसे दूसरे विकार उत्पन्न होते हैं । फिर भले ही वह मोह काम का हो या क्रोध का' हो, लोभ का हो या दूसरे प्रकार का हो । मगर विकारो का राजा मोह ही है । जिसे सुनने से मोह मे कमी हो वही धर्मकथा है, और जिसे सुनने से मोह मे' कमी न हो, बल्कि मोह उलटा बढ जाये, वह धर्मकथा नही, मोहकथा है।
तुम व्याख्यान सुनने के लिए प्रतिदिन आते हो । मगर यह देखो कि क्या तुमने धर्म कथा सुनी है ? अगर सुनी है तो क्या तुम्हारे विकार मिटे या कम हुए हैं ? अगर नही, तो यही कहा जा सकता है कि या तो धर्मकथा सुनने वालो मे कोई खामी है या सुनाने वाले मे कोई कमी है । मैं अपने सम्बध मे तो यही मानता हूँ कि खामी मुझ मे ही है । भगवान् का उपदेश सुनकर तो शेर और बकरी भी आपस का वैरभाव छोड़ देते थे ।