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तेईसवाँ बोल-३३
णार्थ- जो साधु या साध्वी स्वय रेशमी वस्त्र पहनेगा वह दूसरो को उसके त्याग का उपदेश किस प्रकार दे सकेगा? साधु को सिर्फ लज्जा की रक्षा के लिए शास्त्रविहित और परिमित वस्त्र रखना चाहिए। उन्हे ऐसे वस्त्रो का उपयोग नही करना चाहिए जो मोह उत्पन्न करे अर्थात् कीमती या सुन्दर हो । हम मे अभी तक वस्त्रों का सर्वथा त्याग कर देने की शक्ति नही आई है, अतएव हमें वस्त्र पहनने पडते हैं, परन्तु वे वस्त्र इतने सादे होने चाहिए कि फैशन के भाव भी उत्पन्न न हो और मोह भी न उ पन्न हो ।
मतलब यह है कि साधुओ को इस बात का दुःख नही मानना चाहिए कि हमारा उपदेश कोई मानता नही या सुनता नही । उन्हें केवल यही सोचना चाहिए कि मेरा उपदेश कोई माने या न माने, अगर मैं स्वयमेव अपने उपदेश के अनुसार बर्ताव करूँगा तो मेरा कल्याण ही होगा ।
धर्मकथा किसे कहते है ? और धर्मकथा के कितने भेद हैं ? इस विषय मे श्रीस्थानागसूत्र मे विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । मगर उस सारे वर्णन का सार यही है कि धर्मकथा में धर्म की ही बात होनी चाहिए, दूसरी कोई बात नही होनी चाहिए । धर्मकथा करते समय कभी-कभी स्त्री, राजा या राज्य की ब त भी चल पड़ती है लेकिन यह सब बातें धर्म की सिद्धि के लिए ही होनी चाहिए । धर्मकथा मे ऐसा कोई भी वर्णन नही आना चाहिए जिससे मोह की वृद्धि हो । मोह की वृद्धि करने वाली कथा धर्मकथा नही वरन् मोहकया है।
आजकल धर्मकथा के नाम पर ऐसे-ऐसे रास गाये