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३६ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ३ )
तुम लोग मेरा उपदेश सुनकर अगर वैरभाव नही छोडते तो इसमे मेरी ही कमी समझनी चाहिए। मुझे अपनी खामो दूर करना चाहिए । अगर तुम अपनी खामी मानने होओ तो तुम्हे भी उसे दूर करना चाहिए । मेरा व्याख्यान देना और तुम्हारा व्याख्यान सुनना कर्म की निर्जरा के लिए हो होना चाहिए । इस प्रकार धर्मकया का एक फल तो कर्मो की निर्जरा होना है ।
धर्मकथा का दूसरा फल क्या है ? इस सम्बन्ध मे भगवान् कहते हैं - जो धर्मकथा करता है वह प्रवचन को प्रभावना करता है ।
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वचन और प्रवचन मे बहुत अन्तर है । वचन साधारण होता है और प्रवचन मे दूसरो की लाभ-हानि समाई रहती है । उदाहरणार्थ एक न्यायाधीश अपने घर पर घर के लोगो से बात चीत करता है और वही न्यायाधीश न्यायालय मे न्याय के आसन पर बैठकर न्याय करता है । इन दोनो प्रकार की बातो मे कितना अन्तर है ? घर की बातो से किसी का वैसा लाभ-हानि नही, मगर न्यायालय मे बैठकर न्याय देने मे दूसरो का लाभ और अलाभ होता है । वचन और प्रवचन मे भी इतना ही अन्तर है । साधारण बातचीत को वचन कहते हैं और जिस वचन में दूसरों का लाभ-अलाभ हो उसे प्रवचन कहते हैं । दूसरो के प्रवचन से तो हानि भी हो सकती है मगर वीतराग के प्रवचन मे एकान्त लाभ ही लाभ है । इस प्रकार के प्रवचन की उपेक्षा करना भारी भूल है । इसी भूल के कारण जीव अनादिकाल से ससार में भ्रमण कर रहा है । की भूल करना मोह का ही प्रताप है ।
इस प्रकार