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छब्बीसा चोल-६३
होती है मगर नवीन कर्म असीम होते हैं । इस कथन का एक उद्देश्य है । जो लोग कहते है कि सयम का फल यदि अकर्म अवस्था प्राप्त करना है तो तप का फल अलग क्यो बतलाया गया है ? यदि तप और सयम का फल एक ही है तो दोनो का अलग-अलग, प्रश्न रूप मे वर्णन क्यों किया गया है ? अगर दोनो का वर्णन अलग-अलग है तो तप और सयम मे क्या अन्तर है ? इन प्रश्नो का, मेरी समझ मे, यह उत्तर दिया जा सकता है कि सयम आगे आने वाले कर्मों को रोकता है और तप आगत अर्थात सचित कर्मों को नष्ट करता है सचित कर्मों की तो सीमा होती है पर अनागत कर्मों की सीमा नही होती है । सयम नवीन कर्म नही बधने देता और पुराने कर्मों का नाश करता है । संयम असीम कर्मों को रोकता है, अतएव सयम का कार्य महान् है । इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि संयम से निष्कर्म अवस्था प्राप्त होती है । जो महान् कार्य करता है, उसी का पद ऊचा माना जाता है।
इस कथन मे यह विचारणीय हो जाता है कि जो भूतकाल का खयाल नहीं करता और भविष्य का ध्यान नही रखता, सिर्फ वतमान के सुख मे ही डूबा रहता है वह चक्कर में पड़ जाता है । अतएव प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह भूतकाल को नजर के सामने रखकर अपने भविष्य का सुधार करे । इतिहास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि पहले जो लोग युद्ध मे लडने के लिए जाते थे और अपने प्राणो की भी बलि चढा देते थे, क्या उन्हे प्राण प्यारे नहीं थे? प्राण तो उन्हे भी प्यारे थे मगर भविष्य की प्रजा परतन्त्र न बने और कायर न हो जाये,