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सत्ताईसवां बोल
तप
चारित्र अर्थात सयम के विषय मे विवेचन किया जा चुका । सयम से अनागत कर्मों का निरोध होता है - आगे आने वाले कर्म रुकते है। मगर जो कम आ चुके हैं, उनका क्षय करने के लिए क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर मे शास्त्र कहता है-पूर्व कर्मों को नष्ट करने का साधन तप है।
लोगों को भावी रोग की इतनो चिन्ता नही होती, जितनी वर्तमान रोग की होती है । भावो रोग तो पथ्य, आहार-विहार से भी अटक सकता है परन्तु वर्त्तम न रोग का निवारण करने के लिए औपध का सेवन करना पड़ता है । कर्मरूप भावी रोग को रोकने के लिए सयम की पावश्यकता है और वर्तमान कर्म-रोग को अटकाने के लिए तप की । कर्म रूपी भावी रोग के निवारण के लिए सयम पथ्य के समान है । जो रोगी पथ्य का ध्यान नहीं रखता और भावी रोग का उपाय नहीं करता उसका उपचार डाक्टर नही कर सकता । कल्पना कीजिए -डाक्टर रोगी को अमुक चीज न खाने के लिए कहता है, मगर प्रत्युत्तर मे रोगी