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५० - सम्यक्त्वपराक्रम (३
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मन के सकल्प - विकल्प से हो होते है । बिल्ली उन्ही दातों से अपने बच्चो को दबाती है और उन्ही से चूहे से को दबाती है । दात तो वही है मगर मन के सकल्प - विकल्प मे अन्तर पड जाने से वस्तु मे भी अन्तर पड जाता है ।
मन मे यह जो अन्तर रहता है, उसका कारण मन की चर्चलता है । जब मन को चचलता दूर हो जाये और मन में किसी प्रकार का भेदभाव न रहे तब समझना चाहिए कि मन वश में हो गया है। जब तक मन मे भेदभाव बना रहे तब तक मन वश मे नही हुआ है ।
कहा जा सकता है कि चित्त की चचलता दूर करना और मन में तनिक भी भेदभ व न आने देना तो बहुत ही कठिन कार्य है । सब साधु भी इतना कठिन कार्य नही कर सकते तो गृहस्थ मन को कैसे वश कर सकते हैं ?
इसका उत्तर यह है कि इस सबन्ध मे साधु या गृहस्थ का कोई प्रश्न ही नही है । जो कोई मनुष्य अभ्यास और वैराग्य को जीवन में उतारता है, वही मन को वश कर सकता है । मन को वश करने के अभ्यास और वैराग्य यही दो उपाय है । मन को वश मे लाने का अभ्यास किस प्रकार करना चाहिए, यह विचार बहुत लम्बा है । योगक्रिया का समावेश इसी अभ्यास में होता है । इस सम्बन्ध में टीकाकार कहते है कि मन को अप्रशन्त मे जाने से रोक कर प्रशन्त में पिरो देने से धीरे-धीरे मन एकाग्र हो जायेगा । अर्थात एक ओर से तो मन को अप्रशस्त मे जाने से रोको और दूसरी ओर उसे परमात्मा के ध्यान में पिरोते जाओ तो मन वश में किया जा सकेगा और उसकी एकाग्रता भी