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६०-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
झते थे? वास्तव में यह समझ ही भ्रमपूर्ण है। इस भूल को भूल मान कर असत्य का त्याग करो और सत्य का पालन करो । सत्य की आराधना करने मे कदाचित् कोई कप्ट आ पडे तो उन्हे प्रसन्नतापूर्वक सहो मगर सत्य पर अटल रहो । क्या हरिश्चन्द्र ने सत्य का पालन करने में आये हुए कप्ट सहने मे पानन्द नही माना था ? फिर आज सत्य का पालन करने में आये हुए कण्टो से क्यो घबराते हो ? आज लोग व्यवहार साधने में ही लगे रहते है और समझ बैठे है कि अम्त्य के विना हमारा व्यवहार चल ही नही सकता । मगर यह मानना गम्भीर भूल है । दरअसल तो सत्य के आचरण से ही व्यवहार सरल बनता है । अमत्य के आचरण से व्यवहार मे वक्रता आ जाती है । भगवान् ने सत्य का महत्व बतलाते हुए यहा तक कहा है कि त सच्च खु भयव ।' अर्थात् सत्य ही भगवान् है । ऐसी दशा मे सत्य की उपेक्षा करना कहा तक उचित है ? सत्य पर अटल विश्वास रखने से तुम्हारा कोई भी कार्य नही अटक सकता और न कोई किसी प्रकार की हानि पहुचा सकता है।
, कहने का आशय यह है कि इन्द्रियो को और मन को वश मे करने के साथ व्यवहार की रक्षा भी करनी चाहिए । निश्चय का ही आश्रय करके व्यवहार को त्याग देना उचित नहीं है । केवली भगवान् भी इसलिए परिषह सहन करते हैं कि हमे देखकर दूसरे लोग भी परिपह सहने की सहिष्णुता सीखे । इस प्रकार केवली को भी : व्यवहार की रक्षा करना चाहिए' ऐसा प्रकट करते है। अतएव केवल निश्चय को ही पकड कर नहीं बैठा रहना चाहिए ।