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तेईसवाँ बोल-४१
सम्बन्ध है । अर्थात् उसमें यह क्रम नही है कि पहले मुर्गी, फिर अडा, या पहले अडा फिर मुर्गी । दोनो में अविनाभाव सम्बन्ध है । इसी प्रकार धर्मदेशना से पुण्यानुबन्धी कर्म का बन्ध होता रहता है, जिससे कि एक से दूसरे पुण्य का क्रम चलता रहता है । पुन्य से पुण्य होने में अन्तर नहीं पड़ता। जैसे एक दीपक से दूसरा दीपक और दूसरे दीपक से तीसरा प्रकट होता है, उसी प्रकार एक पुण्यानुबन्धी से दूसरा और दूसरे पुण्यानुबन्धी से तीसरा पुण्यानुबन्धी कर्म का बन्ध होता ही रहता है। उसमे अन्तर नही पडता । इसलिए कहा गया है कि धर्मदेशना से निरन्तर पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है ।
यहा एक प्रश्न और उपस्थित होता है। वह यह कि धर्मदेशना से यदि निर्जरा होती है तो फिर शुभानुबन्धी फल का मिलना क्यो कहा गया है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि धर्मदेशना से निर्जरा भी होती है और शुभ कर्म का बन्ध भी होता है । अर्थात् जो कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं, उन कर्मों में किसी प्रकार का बन्ध नहीं होता, पर जो कर्म शेप रहते हैं, उनमे से शुभ कर्मों का ही बन्ध होता है । इस प्रकार धर्मदेशना का फल निर्जरा होने के साथ ही शुभ कर्मों का बन्ध होना भी है।
वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, यह स्वाध्याय के पाच भेद हैं । पाच प्रकार के स्वाध्याय से सूत्र की आराधना होती है। सूत्र की आराधना के विषय मे अगले बोल मे विचार किया जायेगा ।