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४० - सम्यक्त्वपराक्रम
कितनी गंभीर भूल है ? कहा जा सकता है कि आत्मा के लिए हमे क्या करना चाहिए । इसका समाधान यह है कि शास्त्रो मे कहा है- 'सव्वे जीवा सुहमिच्छन्ति ।' अर्थात् सभी जीव सुख चाहते हैं यह मानकर सब जीवो का कल्याण करो | कोई भी काम ऐसा न करो जिससे किसी जोव का अकल्याण हो ।
ससार का प्रत्येक पदार्थ, जो एक प्रकार से कल्याणकारी माना जाता है, दूसरे प्रकार से अकल्याणकारी साबित होता है । मगर धर्मदेशना एक ऐसी वस्तु है जो एकान्त कल्याणकारिणी है । अतएव सासारिक पदार्थों के मोह में न पडते हुए धर्मदेशना को अपनाओ और जीवन में उतारकर आत्मा का कल्याण साधो ।
धर्मदेशना का फल बतलाते हुए जो कुछ कहा गया है. उसमे 'अनवरत ' शब्द आया है । अनवरत का अर्थ - 'निरन्तर ' है । अत यहाँ यह कहा गया है कि धर्मदेशना से निरन्तर कल्याणरूप कर्म का बघ होता है ।
प्रश्न उपस्थित होता है कि किये हुए कर्म तो भोगने ही पडते हैं, फिर यहा निरन्तर शब्द का प्रयोग क्यो किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जीत्र पुण्यानुबन्धी कर्म बांधता है और उसका ज्यो ही श्रन्त आता है त्यो ही दूसरे पुण्यानुबन्धी कर्म का बन्ध हो जाता है । इस प्रकार धर्मदेशना से जीव निरन्तर भद्र कल्याणकारी कर्म का बन्ध करता है । इसी कारण यहा निरन्तर ( अनवरत ) शब्द का प्रयोग किया गया है । जैसे मुर्गी और उसके डे मे से किसी को पहले नही कह सकते । दोनो का अविनाभाव