________________
बाईसवाँ बोल-१६ है। उसी प्रकार कर्मप्रवाह को रोक देने से अर्थात नवीन कर्मों को न आने देने से जीव कर्म रहित हो जाता है ।।
दूध और घी साथ ही होते है । दूध और घो के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि पहले दूध हुआ या घो। फिर भा क्रिया द्वारा दूध और घी पृथक्-पृथक् किये जा सकते हैं । इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि पहले आत्मा या पहले कर्म है ? कर्म आत्मा के साथ ही है। अगदिकाल से आत्मा कर्मो के साथ और कर्म आत्मा के साथ बद्ध हैं यह कहा जा सकता है। फिर भी प्रयोग द्वारा जैसे दूध मे से घी अलग किया जा सकता है, उसी प्रकार पुरुषार्थ द्वारा आत्मा और कर्मो का भा पृथक्करण हो सकता है । अरणि को लकडी के साय हा आग उत्पन्न होती है, फिर भो उस लकडी को घिसने से आग उसमे से बाहर - निकल जाती है । इसी प्रकार जीव और कर्म के सयोग
भी आदि नही है, तथापि प्रयत्न द्वारा जीव और कर्म पृथक् किये जा सकते हैं ।
__ शास्त्रकार कर्म को हो दुख कहते हैं । श्री भगवतीसूत्र मे गौतम स्वामो ने भगवान् से प्रश्न पूछा है किदुखी जीव दु ख का स्पर्श करता है या अदुखी जीव दुख का स्पर्श करता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान ने कहा है-'दुखी जीव ही दु ख का स्पर्श करता है, दुखरहित जीव दुख का स्पर्श नहीं करता ।' यहा दु ख का अर्थ कर्म है । अर्थात् जिसमे कर्म है वही जीव कर्म का बन्ध करता है, फिर भले ही वह कर्म शुभ हो या अशुभ हो । शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म आत्मा के ऊपर आवरण डालते हैं और दोनो प्रकार के कर्म वस्तुतः दुखरूप ही हैं। अतः