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२८-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
अगर इतना न बन सके तो कम से कम इतना अवश्य करो कि चित्त को बुरी बातो की ओर मत जाने दो । अगर चित्त को इतना भी काबू में रखने को सावधानो रखोगे तो भी बहुत कुछ कल्याण कर सकोगे । जव बालक परो से चलना सीख लेता है तव उमे एक जगह बैठने के लिए कहा जाये तो वह नही बैठ सकता । वह इधर-उधर फिरता रहता है । अतएव इस बात को सावधानो रखनो पडती है कि वालक कही गडहे मे न गिर जाये । मन को भी नन्हें से बालक के समान ही समझो । योगक्रिया के विना मन रोका नहीं जा सकता, अतः इस पर सद्गुरु के वचनो का पहरा रखो जिससे यह खराव कामो की तरफ न चला जाये । वालक कुसंगति मे जाता हो तो रोकना पडता है। इसी प्रकार यह मन खराब सगति मे न चला जाये, इस वात की खास सावधानी रखना उचित है। कितने-कितने कप्ट सहने के व.द यह मन मिला है । और उसमे भी सम्यग्दृष्टि तथा श्रावक के मन का कितना अधिक महत्व है । इस पर विचार करो। वडी-बड़ी कठिनाइयो के बाद मिला हुआ मन कही बुरे काम की ओर न चला जाये, इस वात की कितनी चिन्ता रखनी चाहिए ? किसी बड़े आदमी का लड़का कुसगति मे पड़ जाता है तो उसके लिए कितनी चिन्ता की जाती है ? इसी प्रकार तुम भी अपने मन को दुराई की ओर न जाने देने की चिन्ता रखो। अगर मन को काबू में कर लिया तो आत्मकल्याण साधने मे देर न लगेगी।