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बाईसवां बोल - २७
मात्मा का नाम स्मरण करने रूप अनुप्रेक्षा करनी चाहिए । जो कुछ भी किया जाये, शुद्ध हृदय से करना चाहिए । ऐसा नही होना चाहिए कि
वेश वचन विराग मन घ, अवगुणों का कोष ।
प्रभु
प्रीति प्रीतीति पोली, कपट करतब ठोस ॥ हे प्रभु ||
अर्थात् -- वेष मे और वचन मे वैराग्य दिखलाया जाये और मन मे पाप रहे तो वह अनुप्रेक्षा किसी काम की नही रहती परमात्मा के वचन पर विश्वास न करना और - झूठ-कपट पर विश्वास करना अनुप्रेक्षा नही, कपट है । अनुप्रेक्षा करने मे किसी प्रकार की दुर्भावना या सासारिक कामना नही होनी चाहिए । ससार मे रहकर सद्विचार करने वाला व्यक्ति संसार का उपकार करता है, और हिमालय की गुफा मे बैठ कर भी असद् विचार करने व ला पुरुष न केवल अपना ही वरन् ससार का भी अहित करता है । अतएव दूसरो की निन्दा करना छोड़कर अपने विकारो को देखो और परमात्मा की प्रार्थना द्वारा उन्हें दूर करके निर्मल बनो । ऐसा करने से तुम्हारा कल्याण होगा ।
कहने का आशय यह है कि अनुप्रेक्षा से आत्मा चतुगंति रूप ससार को पार कर सकता है, अत अपने चित्त को ग्रनुप्रेक्षा करने मे पिरो दो । तुम कह सकते हो कि चित्त बडा चचल है, इसे अनुप्रेक्षा मे किस प्रकार पिरोया जाये ? इसका उत्तर यह है कि चित्त तो चचल है, चचल था और चंचल रहेगा, परन्तु योग की क्रिया द्वारा चचल चित्त भी स्थिर किया जा सकता है । योग की क्रिया द्वारा चित्त स्थिर करके अनुप्रेक्षा करोगे तो बहुत लाभ होगा ।