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बाईसवाँ बोल-१७
मलीन से निर्मल अवस्था में पहुच जाता है, उसी प्रकार जीव भी मोक्ष मे जाता और फिर ससार मे आ जाता है और फिर मोक्ष चला जाता है । आत्मा मोक्ष मे तो चला जाता है मगर जब वह अपने शासन की उन्नति और दूसरो के शासन की अवनति देखता है तो उसे राग होता है और जव अपने शासन की अवनति तथा दूसरो के शासन को उन्नति देखता है तब उसे द्वेष होता है । इस प्रकार राग और द्वेष के कारण जीव मोक्ष मे से फिर ससार में अवतार लेता है।
यह कथन अत्यन्त अज्ञानपूर्ण है । जो आत्मा राग और द्वेष का क्षय होने पर मुक्त हुआ है, उसे फिर रागद्वेष नही हो सकते और इस कारण वह ससार में भी नही आ सकता । मोक्ष को प्राप्त कर्म-रजहीन आत्मा भी अगर कर्मरज से लिप्त होकर फिर ससार मे आ जाये तो ससार और जीव का सम्बन्ध सादि हो जायेगा और यह भी कहा जा सकेगा कि अमुक जीव अमुक समय से कर्मरज-सहित है । मगर ऐसा मानना भूलभरा और भ्रामक है, क्योकि जो जीव कर्मरज-रहित हो गया है वह फिर कर्मरज-सहित नही हो सकता। इस प्रकार आत्मा का मोक्ष मे जाकर फिर ससार मे आना युक्तिसगत नही है।
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अगर अनादिकालीन है तो वह किस प्रकार नष्ट किया जा सकता है और जीव किस प्रकार निष्कर्म बन सकता है?
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जीव और कर्म का