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महोपाध्याय समयसुन्दर
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थे, जिसमें शायद प्रशिष्यों की संख्या सम्मिलित नहीं है उन शिष्यों में से कई तो शिष्य महा विद्वान्, वादी और प्रतिभा सम्पन मेधावी भी थे। किन्तु इतना होने पर भी कवि को शिष्यों का सुख प्राप्त नहीं हुआ। जिन शिष्यों को योग्य बनाने के लिये कवि ने अपना सर्वस्व त्याग किया, गुजरात के सत्यासीया दुष्काल में भी शिष्यों को सुखी रखने के लिये जिसने कोई कसर नहीं रखी, जिसने अपनी आत्मा को पंचित कर साधु-नियमों का · लखन कर माता-पिता के समान ही शिष्यों का पुत्रवत् पालन किया था। व्याकरण, प्राचीन एवं नव्यन्याय, साहित्य और दर्शन का अध्ययन करवा कर, गणनायकों से सिफारिशें कर उपाधियां दिलवाई थी
और जो समाज एवं गच्छ प्रतिष्ठित यशस्वी माने जाते थे, वे ही शिष्य कधि को वृद्धावस्था में त्याग करके चले जाते हैं, सेवा शुश्रूषा भी नहीं करते हैं और जो पास में रहते हैं वे भी कवि की भन्तपीड़ा नहीं पहचान पाते हैं; तो कवि का हृदय रो उठता है और अनिच्छा होने पर भी बलात् वाचा द्वारा अभिव्यक्त करता हुश्रा अन्य साधुओं को सचेत करता है कि शिष्य सन्तति नहीं है तो चिंता न करो । देखो, मैं अनेक शिष्यों का गुरु हाता हुआ भी दुःखी हूँ:
चेला नहीं तउ म करउ चिन्ता, दीसइ घणे चेले पणि दुक्ख । संतान करंमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख ॥१॥ केइ मुया गया पणि केइ, केइ जुया रहइ परदेस ।
पासि रहइ ते पीड न जाणइ, + देखिये, भागे का शिष्य परिवार अध्याय ।
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