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महोपाध्याय समयसुन्दर
( २७ )
श्री ललितप्रभसूरि, पाटण पूनमिया सुगुरु, प्रभु लहुडी पोसाल, पूज्य बे पीपलिया खरतर; गुजराती गुरु बेउ, बडउ जसवंत नइ केसव,
शालिवाडियउ सूरि, हूँ कितो पूरो हिसब । सिरदार घणेरा सहरया, गातारथ गिणती नहीं; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, तु हतियारउ सालो सही।१८। ऐसी अवस्था में कई साधुओं ने उल्टा लाभ उठाया था। श्रावकों की अनिच्छा होते हुये भी अनेकों अनाथ बच्चों को दीक्षित कर जमात बढ़ाई थी। इसी पर कवि व्यंग्य कसता हुआ कहता है:
आपणा वाल्हा आंत्र, पड्या जे आपणां पेटा, नाण्यो नेह लिगार, बापइ पिण बेच्या बेटा; लाधउ जतीए लाग, मूडी नई मांहइ लीधा; हुंती जितरी हुस, तीए तितराहिज कीधा। कूकीया घणु श्रावक किता, तदि दीक्षा लाभ देखाडीया; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, लइं कुटुम्ब बिछोहा पाडीया।१०।
कवि भी इस दुष्काल की मार से बचा नहीं। इधर तो कवि की वृद्धावस्था और इधर शिष्यों द्वारा त्याग; ऐसी अवस्था में यह ८४ गच्छ का सर्वमान्य कवि अति-दुर्बल और पीड़ित हो जाता है। फिर भी क्षीण देही कवि अपने शिष्यों के मोह में ग्रसित होकर, साधुओं के लिये अनाचरणीय, शास्त्र, पात्र और वस्त्र बेचकर कितना ही काल व्यतीत करता है। पर, हा, हतभाग्य ! कवि के वे ही शिष्य उसका त्याग कर जाते हैं:
दुःखी थया दरसणी, भूख आधी न खमावइ; श्रावक न करी सार, खिए धीरज किम थायइ,
चेले कीधी चाल, पूज्य परिग्रह परहउ छांडर; * यह दशा उस समय सर्ब साधारण की थी।
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