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महोपाध्याय समयसुन्दर
मू घरणा मनुष्य, रांक गलीए रडवडिया, सोजो वल्यउ सरीर, पछई पाज मांहे पडिया; कालइ कवण क्लाइ, कुरण उपाढइ किंहा काठी, ताणी नाख्या तेह, मांडि थइ सगली माठी । दुरगंधि दशो दिसि उछली, मडा पड्या दीसइ मुआ, समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, किरण घरइ न पड्या कुकुत्रा ||१६||
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ऐसी भयंकर अवस्था में, जो उपासक, देव गुरु और धर्म के परमपूजारी और श्रद्धालु थे वे भी अपने कर्त्तव्यों से पराङ्मुख हो गये थे । अतः उपासकों के भगवत्तुल्य ८४ गच्छ के साधुओं की दशा भी आहार न मिलने के कारण बड़ी विचित्र हो गई थी । देवमंदिर शून्य से हो गये थे :--
घर तेडी घरणी वार, भगवान ना पात्रा भरता, भागा ते सहु भाव, निपट थया वहिरण निरता; जिमता जडइ किमारण, कहै सवार छै केई,
इ फेरा दस पांच, जती निठ जायइ लेई । श्रपइ दुखइ अछूटतां, ते दूषण सहु तुझ ताउ; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, विहरण नहीं विगुचरणउ |१५|
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पडिकमा पोसाल, करण को श्रावक नावइ, देहरा सगला दीठ, गीत गंधर्व न गावइ; शिष्य भाइ नहीं शास्त्र, मुख भूखइ मचकोडइ, गुरुवंद गइ रीति, छती गीत माणस छोड़इ । वखाण खाण माठा पड्या, गच्छ चौरासी एही गति; समयसुन्दर कहई सत्य सीया, कांइ दीधी तई ए कुमति |१५|
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इस सत्यासी या भाग्यशाली ने तो कई श्राचार्यो को अपना ग्रास बनाया था। कितने गीतार्थो को अपने अधिकार में किया था; कल्पना ही नहीं :--
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