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महोपाध्याय समयसुन्दर
पुस्तक पाना वेचि, जिम तिम अम्हनइ जीवाडउ। वस्त्र पात्र बेची करी, केतौक तो काल काढियउ, समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, तुनइ निपट निरधाटीयउ॥१३॥
इस प्रकार दुर्भिक्ष से स्वस्थ होने पर कवि अनुभव करता है कि स्वसाधना और परार्थसाधना जो हमारा जीवन का लक्ष्य है, उससे हम दूर होते चले जा रहे हैं। साध्वाचार के प्रतिकूल शिथिलता में पनपते जा रहे हैं जो हमारे साध्यजीवन के लिये अत्यन्त ही घातक है । हमें पुनः उत्थान की तरफ चलकर आदर्शमय बनना होगा । इन्हीं विचारों में अग्रसर होकर कवि वृद्धावस्था में भी सं० १६६१ में शैथिल्य का त्याग कर सुविहित साधुता अपनाते हुये 'क्रियोद्धार' करता है और भावी-समाज के लिये प्रादर्श की भूमिका छोड़ जाता है।
जीवन की कातरता यह जीवन का सत्य है कि भौतिकवाद की दृष्टि से मानव की सम्पूर्ण आकांक्षायें कदापि पूर्ण नहीं होती। किसी न किसी प्रकार की कमी रहती ही है और वही कमी जीवन का शल्य बनकर सम्पूर्ण भौतिक सुखों पर पानी फेर देती है तथा जीवन को दुःखी बना देती है । यही दुःखीपना कातरता का स्वरूप धारण कर मनुज्य को दीन भी बना देता है । यही जीवन की एक श्राकांक्षा कवि जैसे सक्षम व्यक्ति को भी कातर बना देती है।
कवि का जीवन अत्यन्त सुखमय रहा है। क्या शारीरिक दृष्टि से, क्या अधिकार की दृष्टि से, क्या उपाधियों की दृष्टि से, क्या सन्मान की दृष्टि से और क्या शिष्य-प्रशिष्य बहल परिवार की दृष्टि से । कहा जाता है कि कवि के स्वहस्तदीक्षित | ४२ शिष्य पदीक्षा तो स्वयं आचार्य देते थे किन्तु जिनके द्वारा प्रतिवोधित
होते थे, उन्हीं के शिष्य बनाया करते थे।
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