Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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ही श्रमणों के लिए षडावश्यक की आवश्यकता क्यों है और किन-किन नियमों के साथ दैनिक कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। इसकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत ग्रन्थ में की गई है। यह ग्रन्थ साध्वाचार एवं उनकी आवश्यक क्रियाओं का उल्लेख करता है।
द्विजवदन-चपेटिका
आचार्य हरिभद्र की यह कृति धूर्त्ताख्यान के समान ही व्यंग्यात्मक शैली में है, जिसमें उन्होंने ब्राह्मण-परंपरा में फैली हुई मिथ्या धारणाओं एवं वर्ण-व्यवस्था सम्बन्धी मिथ्या मान्यताओं को नकारा है। कृति की शैली व्यंग्यात्मक है, परन्तु शिष्टाचारपूर्ण है।
श्रावकविधि- प्रकरण
प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत-भाषा में रचित है। इसमें कुल 120 गाथाएँ हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ की गाथाओं में आचार्य हरिभद्र ने श्रावक शब्द के अर्थ को स्पष्ट किया है तथा श्रावक के लिए आवश्यक योग्यताओं पर दृष्टि डाली है एवं श्रावक के योग्य-अयोग्य लक्षणों की चर्चा की है। आचार्य हरिभद्र ने इस कृति में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का वर्णन करते हुए श्रावक-धर्म मूल नींव सम्यक्त्व का विश्लेषण किया है, साथ ही दर्शनाचार के आठ भेदों का विवरण भी दिया है। ग्रन्थ अन्त में भी श्रावक के विशिष्ट कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है।
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