Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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गीत गाय रही हैं और महल के चौगिरद सावधान सामन्तोंकी चौकी है और अति शोभा बन रही है सेज पर अति कोमल बिछौने बिछ रहे हैं वह राजा भगवान के पवित्र चरण अपने मस्तक परधारे है और स्वप्न में भी बारम्बार भगवानहीका दर्शन करे है और स्वप्नमें गणधरदेव सेभी प्रश्न करे है इस भांति सुख से रात्री पूर्णभई पीछे मेघकी ध्वनि समान प्रभातके वादित्र वाजतेभए उनके नादसे राजा निद्रासे रहितभया ,
राजा श्रेणिकअपने मन में विचार करता भया कि भगवान की दिव्य ध्वनि में तीर्थकर चक्रवादिक के जो चरित्र कहेगये वह मैने सावधान होकर सुने अब श्रीरामचन्द्र के चरित्र सुनने में मेरी अभि लाषा है क्योंकि लौकिक ग्रन्थों में रावणादिक को मांस भक्षी राक्षस कहा है परन्तु वे विद्याधर महाकुल । वन्त कैसे मद्य मांस रुधिरादिक का भक्षण करें । और रावण के भाई कुम्भकरण को कहे है कि वह छै । महीने की निद्रा लेता था और उसके ऊपर हाथी फेरते और ताते तेल से कान पूरते तोभी छह महीना से पहले नहीं जागता था और जब जागता था तब ऐसी भूख प्यास लगती थी कि अनेक हस्ती महिषी , (भैसा) आदि तिर्यंच और मनुष्यों को भक्षण करजाता था और राधि रुधिर का पान करता। तौभी तृप्ति नहीं होतीथी और सुग्रीव हनमानादिकको बानर कहें हैं परंतु वेतोबड़े राजा विद्याधर थे बड़े पुरुष को विपरीत कहनेमें महा पापका बंध होयहै जैसे अग्निके संयोगसे शीलतान होय और तुषार (बर्फ) के संयोगसे ऊष्णता (गरमी) न होय जलके मथन से घीकी प्राप्ति न होय और बालूरेतके पेलने से तेल की प्राप्ति न होय तैसे महा पुरुषों के चरित्र विरुद्ध सुनने से पुण्य न होय और लोक ऐसा कहे हैं कि देवों के स्वामी इन्द्र को रावण ने जीता परन्तु यह बात नहीं बनती, कहां वह देवों का इन्द्र और कहा।
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