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10 उत्पन्न हुई।
यत्पुरुष व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् । मुख किमस्य को बाहु कावुरू पादो उच्चते । ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाह राजन्य कृतः ।
उरू तदस्य यद्वैश्य: पदमों शूद्रोऽजायत ।' भृगु ऋषि ने माना कि वर्ण का सिद्धान्त केवल त्वचा के रंग पर आधारित न होकर कर्म और गुण पर आधारित है। जो लोग भोग, क्रोध, कठोरता, वीरता आदि के युक्त थे, वे रजोपधान अथवा लोहित गुण के क्षत्रिय कहलाये। इसी तरह जो लोग खेतीबाड़ी और पशुपालन आदि में रुचि लेते थे, पीतगुण प्रधान वैश्य वर्ण कहलाये। जो लोग असत्यवादी, लोभी, लालची और हिंसक तथा इस प्रकार श्यामवर्ण वाले व्यक्ति थे, वे शूद्र कहलाये।
परम्परागत सिद्धान्त, रंगसिद्धान्त के अतिरिक्त प्राचीन साहित्य में कर्म और धर्म का सिद्धान्त भी प्रतिपादित था। वैदिक युग में वर्णों की व्यवस्था समाज की आवश्यकताएँ थीपठनपाठन, धार्मिक और बौद्धिक कार्यों की पूर्ति 2. राज्य व्यवस्था का संचालन तथा समाज की व्यवस्था 3. आर्थिक क्रियाओं की पूर्ति, 4. सेवा। इन चार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की उत्पत्ति हुई।' यह कर्म धर्म से जुड़ा था।
महाभारत काल में वर्गों की उत्पत्ति जाति के गुणों के आधार पर मानी गई है। सतोगुण प्रधान व्यक्ति ब्राह्मण, रजोयुग प्रधान क्षत्रियय और तमोगुण प्रधान व्यक्ति शूद्र कहलाता है।
इन चारों सिद्धान्तों के विरुद्ध श्री बी.के. चट्टोपाध्याय ने जन्म को वर्ण का कारण बताया। जन्म के कारण ही क्षत्रिय का कर्म करते हुए भी द्रोणाचार्य ब्राह्मण कहलाये। जन्म के कारण ही क्रूर अश्वत्थामा अपनी क्रूरता के बावजूद ब्राह्मण कहलाया। सतोगुणी धर्मराज युधिष्ठिर गुणों से ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय कहलाये। पाँचों पाण्डवों के स्वभाव में भारी अन्तर होते हुए भी वे सभी क्षत्रिय कहलाये।
इसमें वर्ण सिद्धान्त प्रजातीय अंतर पर आधारित है, कर्म का सिद्धान्त व्यक्ति के स्वभाव की ओर संकेत करता है। प्रारम्भ में वर्ण कर्मणा थी, जन्मना नहीं। पुरुरुवा क्षत्रिय राजा था। गाधि उन्हीं के वंश में जन्मे थे। किन्तु गाधि की कन्या सत्यवती से परशुराम के पितामह ऋचीक ने विवाह किया था। इस प्रकार गाधि के पुत्र विश्वामित्र क्षत्रिय और जामाता ऋचीक ब्राह्मण कहे गये हैं। कृष्ण द्वैपायन व्यास की माता धीवर जाति की थी, किन्तु व्यास क्षत्रिय और ब्राह्मण सबके पूजनीय थे।' 1. ऋग्वेद में 10 सू. 9, 10/3/12 2. भारतीय समाज, संस्थायें और संस्कृति, पृ 30 3. वही, पृ.30 4. वही, पृ31 5. वही, पृ31 6.संस्कृति के चार अध्याय, 175 7. वही, पृ76
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